ईश्वर पराया नहीं है
अब जब विज्ञान ने इतने आविष्कार कर लिए हैं, जिंदगी इतनी जरूरी और आसान बना दी है, ईश्वर एक चिंता में डूब रहा है।
कल तक जो मानव उसकी गोद में खेलता था, जो जरूरत मानता था उसे, आज वो उद्दंड नजरों से उसके पूरे संसार को नाश करने पर आमदा है। कहीं भी ईश्वरीय बातें होती हैं तो जरूरत से अधिक अब अकल्पनीय जैसी लगती हैं। लगता है जैसे किसी अजनबी की बातें चल रही हों। जबकि पहले ईश्वर हमें इतना पराया कभी नहीं लगता था। वो पंक्षी, पेड़, पहाड़ों पत्थरों में ईश्वर को मानने वाले हम इतने दूर हो चुके हैं विश्वासों से, जैसे किसी ने देखा ही न हो जन्म से अपने जन्मदाताओं को। विज्ञान ने हमें इतना अविश्वासी बना दिया है कि भूल गए हैं हम आंख बंद करके , दीप जलाकर, मुस्करा कर बैठने पर गहरा आत्मविश्वास जाग सकता है। यही आत्मिक संबंध हमें रूबरू कराता है उस दिव्य चैतन्य से। सब अभ्यास कर रहे हैं रोज गैर बनने का, और कठोर बनने का। सटीकता की तलाश में हम डूब रहे हैं सिर्फ अंधेरे में, जबकि हम जानते हैं कि सटीकता और परम सत्य जैसा कुछ नहीं इस संसार में...
उसे देखो
तो गुम है
न देखो तो तिमिर
देख भी लिया तो
विश्वास नहीं करोगे
अगर देख पाए
तो मोह बंधेगा
मोह बंधा तो डोर ढूंढोगे
नहीं बंधी तो रुक जाओगे
लेकिन रुकना नहीं है
सिर्फ आंख बंद करके
आत्मिक अनुभव करना है
(यही विश्वास है)
आज की ये पोस्ट के विषय पर मैं न जाने कितने महीनों से लिखने का विचरण कर रही थी, शब्द आते थे लेकिन भाव नहीं, शायद आज दोनों का सही संबंध बैठा पाई हूं।
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