मेरे डर को जानोगे तो हंसोगे

 क्योंकि मैं बाहर से सख्त और तन्हा दिखती हूं, या क्योंकि मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं होती लोगों को छोड़ने में..। कितनी आसानी से विश्वास किया जा सकता है कि मैं एक उदास के साथ साथ मजबूत भी हूं, नहीं..ऐसा नहीं है। मेरे भीतर का मन जिसे मुझे रोज बच्चे की तरह संभालना पड़ता है, जिसे रोज समझाना पड़ता है कि नियति में सिर्फ अकेलापन और दुःख ही वास्तविक हैं, चाहे कितनी भी कोशिश की जाए इस अथाह गहरे सागर से निकलने के लिए ..ये इतना विशाल है कि इससे बाहर नहीं निकला जा सकता। 

मैं सहमी और डरी हमेशा रही हूं, लेकिन मैं कभी बताती नहीं इन डर को किसी से , कि कहीं मैं हंसी का पात्र न बन जाऊं.. मुझे वियोग का डर संजोग से पहले सताता है, इसलिए मैं स्वीकारती नहीं लोगों को। मैं खूब जानती हूं कि लोग पूर्णतः नहीं जुड़ते आपसे..कभी भी। 

मेरे पास रंग धीरे धीरे खत्म हो रहे हैं, मैं अब पहले की तरह खुद को खुश भी नहीं रख पाती हूं, न जाने कितने तरीके आजमा चुकी हूं कि कहीं तो मन बहलाया जाए। लेकिन लौट कर किसी जिद्दी बच्चे की तरह मुझे ही इस मन को संभालना पड़ता है। कितना समान्य है जिंदा और खुश दिखाना लोगों को... उतना ही मुश्किल है रोज रात को खुद से मिलना और हर दफा उदासी का हाथ थाम कर सो जाना। 

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