बदलाव दुख के साथ बीतता है

 कभी कभी बड़ी अपरिपक्वता से मैं खुद के साथ व्यवहार करती हूं। जैसे जानती ही नहीं खुद को। कुछ दिनों तक मैं अपने किसी बड़े असल दुख को छिपाने के लिए, एक छोटे दुख को ढूंढने में लगी थी। ये ऐसा ही था जैसे छोटे बच्चे को कार का सपना दिखाकर खिलौना पकड़ा देना... एक कृत्रिम दुख, फीका सा, जिसमे कभी कोई एहसास नहीं होगा... और एक दिन ये चुपचाप चले जाएगा, उस बड़े दुख को साथ लेकर। 

मै बहुत सीमित करना शुरू कर चुकी थी खुद को, जैसे एक बंद कमरे में किसी बड़े पाठक को शांति चाहिए होती है, मुझे भी उसकी ही तलाश रहती थी दिन भर। लेकिन मेरे आसपास इतना बिखराव पड़ा था, इतनी तंग और जिल्लत भरी जिंदगियां थी जिसमे मुझे ये अपने लिए अलग शांत माहौल खोजना अट्टहास लगा। मैं हार कर वापस आ गई वहीं...

फिर से

अब फिर से शुरू करना होगा सब,बचाना होगा उस बड़े दुख को.. बहुत जरूरी है उसे बचाना। विदा करना होगा इस कृत्रिमता को। अब मुझे स्वीकारना होगा जिससे मै भाग रही थी, जिससे बच रही थी इन तीन महीनों में...जो बेकार सहारे ढूंढ रही थी। उन्हें वहीं उनकी जगह रखकर फिर चलना होगा...



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