... अंत एक परिणाम है, जो कभी नहीं घटता
.. अभी अभी एक किताब खत्म करके लौटी हूं, काफी दिनों से कुछ नहीं लिखा ये ऐसा था जैसे किसी काम में व्यस्त होकर,अपने किसी जिद्दी बालक को मां सुला देती है। और व्यस्त रखती है खुद को उस जरूरी काम में... अब अचानक बड़बड़ाने लगती हूं, कुछ प्रार्थनाएं किससे करती हूं नहीं पता, सिर्फ इतना मालूम है..इन्हें कहने के बाद मुझे एक सिरहाना मिल जाता है, जिसके पास बैठकर मैं कुछ भी कह सकती हूं। ईश्वर से मेरा जुड़ाव कभी उस तरह नहीं होता जैसा मेरे आसपास के लोगों को होता है, जैसे वे ईश्वर को अपना पूरा आत्मविश्वास थमा देते हों और बदले में ईश्वर उनके सभी काम पूरे करने की जिम्मेदारी लेता है। मानो वह कोई बलशाली राजा है या कोई तानाशाह, जिसकी अपनी मार्जियों से यह दुनिया चलती है। ....पता नहीं क्यों मैने बचपन में जिस ईश्वर को माना था वो मेरा मित्र था, मेरा कोई सगा.. ऐसी बात नहीं है कि मैने स्वयं को नास्तिक मान लिया है। नास्तिक होना अहंकार वादी होना है। मुझमें आत्मविश्वास है, अहंकार नहीं... ये सुख दुख की बातें ही हैं जो दुनिया में जीवन को चला रही हैं। बताओ तुमने कभी सुख की शक्ल देखी है? यह भोला होता है, बहुत ...