संदेश

नवंबर, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

... अंत एक परिणाम है, जो कभी नहीं घटता

 .. अभी अभी एक किताब खत्म करके लौटी हूं, काफी दिनों से कुछ नहीं लिखा ये ऐसा था जैसे किसी काम में व्यस्त होकर,अपने किसी जिद्दी बालक को मां सुला देती है। और व्यस्त रखती है खुद को उस जरूरी काम में... अब अचानक बड़बड़ाने लगती हूं, कुछ प्रार्थनाएं किससे करती हूं नहीं पता, सिर्फ इतना मालूम है..इन्हें कहने के बाद मुझे एक सिरहाना मिल जाता है, जिसके पास बैठकर मैं कुछ भी कह सकती हूं। ईश्वर से मेरा जुड़ाव कभी उस तरह नहीं होता जैसा मेरे आसपास के लोगों को होता है, जैसे वे ईश्वर को अपना पूरा आत्मविश्वास थमा देते हों और बदले में ईश्वर उनके सभी काम पूरे करने की जिम्मेदारी लेता है। मानो वह कोई बलशाली राजा है या कोई तानाशाह, जिसकी अपनी मार्जियों से यह दुनिया चलती है। ....पता नहीं क्यों मैने बचपन में जिस ईश्वर को माना था वो मेरा मित्र था, मेरा कोई सगा.. ऐसी बात नहीं है कि मैने स्वयं को नास्तिक मान लिया है। नास्तिक होना अहंकार वादी होना है। मुझमें आत्मविश्वास है, अहंकार नहीं... ये सुख दुख की बातें ही हैं जो दुनिया में जीवन को चला रही हैं।  बताओ तुमने कभी सुख की शक्ल देखी है? यह भोला होता है, बहुत ...

सच सिर्फ रुलाते हैं..

... लिखना , गहन विचारों पर कार्य करने का परिणाम है। वे विचार जो समाज, परिवार, विश्व, प्रकृति, और यहां के निवासियों को सोचने के बाद आकार लेते हैं। और जब सोचना आरम्भ होता है तो एक बंजर मैदान पर मेहनत से एक पौधा उगाना होता है, जिसे हम विचार कह सकते हैं।  मुझे लगता है, जो लिखता है वो खुश नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इस दुनिया में तमाम ऐसी सच्चाई हैं जो तुम्हे इतना दुखी कर सकती हैं कि तुम विवश हो जाओ रोने के लिए...। सच का साथी सुख नहीं, कभी नहीं...सच का कोई साथी नहीं होता। वो नितांत अकेले , निर्भय होकर रह सकता है। इंसान ने परंपराएं गढ़ीं, संस्कृति बनाई..एक सामाजिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए। जिससे समाज सभ्य बना रहे, कलह न हो। लेकिन भूल गए हम की इन्हीं परंपराओं ने कई ऐसे सच को झूठ की मिट्टी से दबा दिया जिससे मानव जीवन ख़ुशपूर्वक बीते।  मुझ पर ये सब पढ़ने का और सोचने का असर है। कई लोग बरसो से मुझसे कहते हैं, तुम खुश रहा करो। मैं खुश नहीं रह सकती, लेकिन हां, नाउम्मीदी नहीं है मेरे भीतर। मुझमें भी दिलचस्पी है, लेकिन वो खुश रहने से ज्यादा नया पढ़ने, सीखने और लिखने की दिलचस्पी...

... समय के साथ बहना।

 निर्मल वर्मा लिखते हैं.. कि देखते हुए जो हम भूल जाते हैं, लिखते हुए वो फिर याद आ जाता है। लेकिन याद करना ...देखना नहीं है..वह अलग करना है अलग करना... किससे? किसी ऐसे शख्स से जो समझ पाए वास्तविक जीवन और अवास्तविक सौन्दर्य में फर्क। हमारे सभी के भीतर एक ऐसा अंश है जो बहुत सी बातों, कहानियों में वास्तविक टुकड़ा ढूंढ कर अपने पास रख लेता है। जैसे मैने बहुत सालों से रख रखा है.. एक ऐसा जीवन जो निरा अकेला होगा, जहां मेरी तकलीफें रोज मेरे साथ सोएंगी वहां कोई नहीं पूछेगा  कि कैसी हो ईशा.. मै समझती हूं ऐसा नहीं होगा, ज्यादा दिनों तक इंसान नहीं रह पाता अकेला, असलियत में सभी घिरे रहते हैं, भले ही जिंदा लोगों से नहीं, लेकिन गुजरे की याद से तो जरूर। ..सभी के सुख बहुत धुंधले हैं, दुख अपारदर्शी है। लेकिन लगता उलट है, हम दुःख को देखकर आंख मूंद लेते हैं, और सुख न होने पर भी उसे सोच लेते हैं।  बहुत अनंत तक नहीं जाना चाहती हूं मैं अपने विचारों में , लेकिन ये बार बार हो जाता है। मानो मैं ही खुद को एक भूल भुलैया में छोड़ आती हूं , और जो वहां है वो एक अलग कर दी गई ईशा का एक अंश है। बाहर जो किना...

दुख अनाथ नहीं है

 कहीं कोई बहुत दर्द मिल जाए पढ़ने को, इतना जी कौंध रहा है अंदर से, यूं लग रहा है अगर नहीं पढ़ा निर्मल वर्मा जैसा किसी को तो शायद नहीं जिऊंगी मैं, रेंगती फिरूंगी। एक भूली हुई चींटी की तरह...  कभी कभी भीतर के दुख को बहाने देकर बहलाने के लिए पढ़ने पड़ते हैं समान एहसास .. ये याद दिलाने के लिए कि दुख बीत रहा है किसी और के साथ भी...बहुत ही ज्यादा चिड़चिड़ी बन जाती हूं, अधूरी सी, उस वक्त मानो बहुत कुछ हरकत कर रहा है भीतर। एक लम्हा है जो नहीं चाहता बीतना, चाहता है ठहरा रहे... लेकिन उसके बीत जाने के लिए मुझे पढ़ना पड़ता है किसी दूसरे दुख को। और ऐसा मेरी आदत बन चुकी है अब, मानो ये दुनिया मेरे भीतर जो गुजर रही है, इसके लिए ईंधन है एक जरूरी यह सब। अगर सही पंक्तियां नहीं मिलीं तो मृत्यु होगी एहसासों की , मजबूरी में... और तुम जानते हो मजबूरी में मरना आत्महत्या होती है क्योंकि मैं नहीं चाहती खुद को खोना इसलिए बार बार याद दिलाती रहती हूं इस एहसास को.. कि और भी हैं जिन पर दुख बीत रहा है... इसलिए भी मैं चाहती हूं उन सभी को पढ़ना जरूरी है जो नहीं जानते दुःख अनाथ नहीं है...