भीड़ की विरासत

 भविष्य कितना डरा देता है न... मानो ये छत पर बैठा कौवा हो जो काय काय करके आगाह कर रहा हो आने वाली परेशानी की। ज्यादातर उन समस्याओं की जिन्हें सिर्फ हमने सोचा है, शायद आधी घटित भी न हों। 

अभी अभी सोने की बहुत कोशिश की, खुद को समझाया भी कि सब सही करोगी तो सही होगा। पर नहीं... ऐसे कैसे ये दूसरों को समझाने जैसा थोड़ी है कि कहा और मान गए... मन की अपनी मर्जी है, यानी समस्या को सोच सोच कर बड़ा करना ही है। मेरा सबसे बड़ा डर वैसी जिंदगी है जिसे और औरतें जी रही हैं, या कहा जाए बने बनाए रास्ते पर चली जा रही है इकट्ठी भीड़ में... की शादी करना जरूरी है, बच्चे करना जरूरी है, घर परिवार चलाना जरूरी है..।

जरूरी क्यों है? किसी दूसरे को पूछो तो बिना प्रूफ के जवाब देगा ऐसा ही होता है.. अबे साले...( अपशब्द)

ऐसा वैसा तो बहुत कुछ होता है इस दुनिया में, शादी करने से आखिर हो क्या जाता है? विद प्रूफ अगर किसी के पास जवाब हो तो दिया जाए न, 1 समस्या हल नहीं होती, 10 पैदा हो जाती हैं। शादी सिर्फ बहाना है इंसान की जरूरतें पूरी करने का एक सामाजिक समझौता है। उससे अलग कुछ नहीं। लेकिन अगर इंसान की जरूरतें अलग हो तो? मानो उसे अपने जीवन में अकेले शांति से रहना है, तो?

तो क्या, तुम गधों की भीड़ उसे इंसान मानने से कर दोगे?  बस यही, अब मैं इस टॉपिक पर बाद में कभी और लिखूंगी, ईशा के प्रवचन हुए समाप्त आज के लिए, क्योंकि शादी करके गंदे मजाक और बकवास लाइफ को प्रमोट करना मेरा शौक है नहीं, मेरा शौक मेरा अकेलापन सुकून से जीना है, शादी के बाद न सोने की रोटी मिलती , ना ही अच्छी जिंदगी..दिखावे के लिए कुछ भी कह दो। मैं खुद के साथ एडजस्ट कर सकती हूं, दूसरे के साथ नहीं...,

इसलिए भीड़ को समझाने से अच्छा है, खुद को टाइम दिया जाए, अच्छा पढ़ा जाए, सुना जाए और उगता व ढलता सूरज देखा जाए वो भी कड़क चाय के साथ। रही बात सपोर्ट की... भाई दूसरे की लाइफ संवारते संवारते जो औरतें भूल जाती हैं खुद को, sacrifice करके जो देवी बन जाती हैं, माफ कीजिए.. शामिल न कीजिए


शब्बा खैर, आते है

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