कौन नहीं सोचता

.... जायज़ है सभी को अपने आने वाले कल की चिंता होती है , मुझे भी बहुत है। जिंदगी भले ही रूठ गई हो, उम्मीद का दम मैं अपने हाथों से भी घोंट चुकी हूं, लेकिन हां चिंता होती है। मैं किसी भी विचित्रता से इतनी नकारात्मक बातें नहीं लिख रही। मेरी रंगों से भरी हथेली पर अब सिर्फ सफेद रंग की छाप है। मेरे बाकी के सूरज शायद ऊब में ही डूब जाएं....लेकिन फिक्रमंद हूं मैं। खुद को लेकर... क्योंकि मुझे किसी और की सोच खुद पर हावी होने का डर रहता है कभी कभी। शायद हर लड़की को रहता है, और कुछ लड़कियां बिना लड़े किस्मत मान कर दूसरे के फैसले अपना भी लेती हैं। मैं उनमें से नहीं हूं... मेरे दादा और मेरी मां.. दोनों ने मुझे अकेले घर से निकलना सिखाया , बेखौफ होकर जीना सिखाया। और मैं बहुत कुछ सीखी कुछ गलतियां खुद की, कुछ दूसरों की से सीखी... आखिर में हम सब अनुभव के ही परिणाम बोले जाते हैं। मुझे बेखौफ बनने में कई बरस लगे हैं ऐसे ही कोई भी आकर मेरे इस व्यक्तित्व को मुझसे छीन कर नहीं ले जा पाएगा। मैं जानती हूं काफी कुछ सीखना बाकी है इस दुनिया से और इस समाज से.. पर मैं अपने विषय खुद ही चुनूंगी.. क्योंकि पढ़ने में और जीवन बिताने में मैं कोई कॉम्प्रोमाइज नहीं करना चाहती। जीने का सलीका भले ही न आया हो मुझमें लेकिन हां..मुझे खुद को झेलने का , अकेले समय बिताने का ढंग आ चुका है। और इस बात का मुझे बिल्कुल भी अफसोस नहीं मुझे कि मैं अकेले जीवन बताऊंगी या पसंद करूंगी.... किसी और की सुन लूंगी लेकिन क्या बात अपनानी है क्या नहीं ये भी मैं ही चुनूंगी। मेरे मानवाधिकारों में शामिल है मेरा व्यक्तिगत मामला। और मैं सबसे पहले मानव हूं...कुछ और बनने से पहले...


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