भाषा मौन की

अंजान आवाजें बारी बारी से
मेरा नाम लेती हैं
मैं वर्तमान से घबराकर
उन्हें अनसुना कर देती हूं
मेरा सूरज सुबह भी औंधा सा चित दिखाई देता है
सभी का अपना सूरज है
सभी के अपने दिन
और सभी को अपना चांद 
क्योंकि इंसानों का नजरिया अलग है
मेरी रात मेरे सिरहाने उन आवाजों को रखती है
मैं दूसरी करवट किए
सोने का दिखावा करती हूं
.... वो आवाजें चूंकि उठ कर हाथ नहीं फेर सकतीं अब 
इसलिए मैं गीला मन लेकर ,सिकुड़ कर , शिशु की भांति
पड़ी रहती हूं, अपनी नींद की जरूरत में।
क्योंकि आखिर में हम जरूरत के हिसाब से आकार ले लेते हैं 
जैसे ...मेरी जरूरत एक कोमल स्पर्श है।


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