तब्दीली
बार बार डरती हूं, लेखक बनने से। चारों तरफ एकांत, दुख, सुख की इच्छा, सही समय की तलाश , सुकून की तलाश, प्रेम, विरह खाली मन...ये सब ही ऐसे चारों तरफ मुख्य विषय की तरह उभर उभर कर सामने आ रहे हैं।
मनःस्थिति को कागज या स्क्रीन पर उतार कर मुझे हल्कापन तो महसूस होता है, लेकिन डर भी छिपा रहता है, कि कहीं मैं इन सब की तरह, और गहरा सोचने लगी तोक्या होगा मेरा। मेरे आसपास तो न तो फूल हैं, न कोमल हाथ, न ही मजबूत कंधे..
लेकिन ऐसा हुआ तो इसकी जिम्मेदारी मैं नहीं ले पाऊंगी।
लेखक होना गैर जिम्मेदार होना है। लोग आपको हौंसला नहीं, आपको बिना समझे झाड़ पर चढ़ा देते हैं। ये जानते हुए कि तना कमजोर है । मुझे मालूम है अगर गिरी तो वो बिल्कुल जिम्मेदारी नहीं लेगे।
क्या हुआ है भारतीय लेखन को, अब हर जगह भूख दिखती है, प्रेम, विरह, सुकून, सुख की। लोग प्रेम को लिखकर महसूस कर रहे हैं। ये ऐसा शायद दिखावा कर रहे हैं, या तसल्ली दे रह हैं खुद को , या की ऐसा भी हो सकता है वो किसी कल्पना लोक में जीने की कोशिश में लगे हैं। सब भाग रहे हैं खुद से, शायद मैं भी उसी रेस की तैयारी में लग गई हूं....लेकिन ये होना मेरे जीवन की दुर्घटना होगी...
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