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असाधारण बनना एक क्रिया है

अचानक अब सभी को असाधारण बनने की आवश्यकता महसूस हो रही है। कोई भी सामान्य नहीं बना रहना चाहता, सब चाहते हैं उनमें एक विविधता दिखे कि लोग हजारों की भीड़ में अलग पहचाने जाएं। सब अपने आकार पाने के लिए खुद के व्यक्तित्व में कांट छांट कर रहे हैं। कितनी अजीब घटना है ये, हम सब जानते हैं कि शुरुआत सभी की स्नेह से हुई और अंत सभी का दुख से होगा। इस बीच में हमारी लड़ाइयां हमारे विपरीत भी लड़ी जाती हैं।  मैं ये नहीं मानती कि मैं इन से अलग हूं, मुझ में भी शायद असाधारण बनने की लालसा है, और ये इतनी तीव्र होती है कभी कि मैं कई काम ऐसे कर देती हूं जो मेरे व्यक्तित्व से बिल्कुल उलट हैं। जैसे मैं नहीं चाहती मै किसी से भद्दा मजाक करूं, लेकिन ये हो जाता है । और आज जब ये लिख रही हूं तो लग रहा है कितना मुश्किल है साधारण बन जाना। मैं हर वक्त प्रेम नहीं लिख सकती, मुझे प्रेम पर लिखना अब थका भी देता है कभी कभी, मैं आजकल अधूरापन लिख रही हूं। और मैं देख रही हूं कि मेरी संपूर्णता मौन में है। लेकिन मैं बाहरी दुनिया के शोर में अपनी आवाज भी जोड़े जा रही हूं जबरदस्ती।  ये मेरी मुझसे ही लड़ाई है जो आखिर तक बनी र...

कविताओं की याद में

 शुरूआत कहां से हो लिखने की, इसी सवाल को सुलझाने में घंटों बीत जाते हैं कभी कभी, क्योंकि बहुत सोचकर लिखना पड़ता है। ज्यादातर मेरे ख्याल मुझ पर गुजरे हालात का रिएक्शन होते हैं तो ज्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती लिखने में।  पर अब सोच रही हूं धीरे धीरे कुछ किरदार और जोडूं अपनी लेखनी में, जिससे मैं इस जगह ज्यादा रहूं बाहर की दुनिया से ज्यादा। मुझे बाहर बोरियत होती है, सब अंजान से लगते है, किसी से बात करने के लिए पहले सोचना होता है। इंसानों की सबसे बड़ी समस्या मुझे यही लगी है कि वो सामने वाले को समझने ज्यादा मेहनत नहीं करते। सिर्फ अपने हिसाब से बनाए जजमेंटल कॉफिन में उसका व्यक्तित्व फिट करना चाहती हैं। मै इसी कारण ज्यादा देर तक नहीं झेल पाती लोगो को, या फिर ज्यादा दिनों तक। क्योंकि मुझे उनके बनाए जजमेंटल कॉफिन में दिक्कत होने लगती है और मैं उन्हें इगनोर करना या वैसा ही छोड़ आती हूं। सोचते हूं आखिर कब तक मैं लोगों से भागती फिरूंगी, ये मेरा पीछा कहां तक करेंगे? क्या संसार में ऐसा कोई होगा जो थक जाएगा तब भी चलेगा मुझसे मिलने के इंतेजार को ढोते हुए?  शायद नहीं, नहीं इतनी अच्छी भी ...

थोड़ी अपनी, थोड़ी स्वप्न की

 आजकल बहुत जल्दबाजी में सोच रही हूं और लिख भी रही हूं। दिमाग में एक साथ तमाम विचार पनप रहे हैं और निकल भी रहे हैं।मेरे भीतर उन विचारों को पकड़ रखने की जल्दबाजी मची हुई है। चाहती हूं वो सब लिख दूं जो भी परेशान कर रहा है या मुझे रोक रहा है। आज जब अचानक बारिश में भीगने का मन बना मैं झट से दुकान बंद करके छत पर पहुंच गई, देर तक एहसास न हुआ कि आंखो से आंसू भी बह रहे हैं.. एक दम जब कांपी तो लगा धीमे धीमे कुछ है जो बह रहा है बारिश के साथ में।  मुझे तब कई विचार आए। मां का जाना सबसे ज्यादा याद आया, मैं उन्हें वहीं छत पर बैठा हुआ याद कर रही थी जब हम दोनों सुबह सुबह एक्सरसाइज करने आखिर दफा वहां बैठे थे। मैने उस दिन की तरह लंबी सांस ली, और ऊपर मुंह करके आंख बंद की जिससे बूंदों ने किसी छोटे बच्चे की तरह मुझसे अटखेलियां खेली हों। एक दम मुझे मेरा एक दोस्त याद आ गया, जिससे मैं पिछले कुछ दिनों से बात कर रही थी, कि एक दम मैं उसे सब कुछ बताने लगी थी। ये पहली दफा था जब मैं किसी अंजान से इतना जुड़ पाई थी, वरना मैं अपने मन की बातें जहर बनने के लिए छोड़ देती हूं, जिससे वो जहर कविता में निकल जाता है। ...

मेरे डर को जानोगे तो हंसोगे

 क्योंकि मैं बाहर से सख्त और तन्हा दिखती हूं, या क्योंकि मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं होती लोगों को छोड़ने में..। कितनी आसानी से विश्वास किया जा सकता है कि मैं एक उदास के साथ साथ मजबूत भी हूं, नहीं..ऐसा नहीं है। मेरे भीतर का मन जिसे मुझे रोज बच्चे की तरह संभालना पड़ता है, जिसे रोज समझाना पड़ता है कि नियति में सिर्फ अकेलापन और दुःख ही वास्तविक हैं, चाहे कितनी भी कोशिश की जाए इस अथाह गहरे सागर से निकलने के लिए ..ये इतना विशाल है कि इससे बाहर नहीं निकला जा सकता।  मैं सहमी और डरी हमेशा रही हूं, लेकिन मैं कभी बताती नहीं इन डर को किसी से , कि कहीं मैं हंसी का पात्र न बन जाऊं.. मुझे वियोग का डर संजोग से पहले सताता है, इसलिए मैं स्वीकारती नहीं लोगों को। मैं खूब जानती हूं कि लोग पूर्णतः नहीं जुड़ते आपसे..कभी भी।  मेरे पास रंग धीरे धीरे खत्म हो रहे हैं, मैं अब पहले की तरह खुद को खुश भी नहीं रख पाती हूं, न जाने कितने तरीके आजमा चुकी हूं कि कहीं तो मन बहलाया जाए। लेकिन लौट कर किसी जिद्दी बच्चे की तरह मुझे ही इस मन को संभालना पड़ता है। कितना समान्य है जिंदा और खुश दिखाना लोगों को... उतना ह...