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लेकिन मुझे चलते रहना पसंद है।

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 गुजरते समय के साथ ये सच्चाई और भी स्वीकारने में कठिनाई होती जा रही है कि मां साथ नहीं है...। आज काफी महीनों बाद अकेले रात में इतना जागी हुई हूं, वर्ना रोज बहाने से खुद को जगाए रखती थी, किसी दोस्त से बात करने के बहाने से या फोन या किताब के बहाने से से। इन बहानों ने मुझे थोड़ी देर सहारा दिया, लेकिन ताउम्र सच से थोड़ी भागा जा सकता है..।   हर दफा परिस्थिति से भागना हमारा बस में नहीं, हमारे बस में सिर्फ इतना है कि हम आराम से सांस लेकर सोच पाएं वर्तमान को, और पुरानी बातें याद करके उदासी ओढ़ लें.. आज शाम को सो ली तो नींद आने में जरा दिक्कत हो रही है । और फिर मैने हमेशा की तरह अपने किसी दोस्त को सदा के लिए अलविदा कह दिया । मैं शायद हमेशा के लिए जुड़ने वाले उस शो ऑफ वाले टैग से कतराती हूं, ऐसा नहीं है मुझे लोग पसंद नहीं या उनसे बात करना पसंद नहीं, लेकिन एक वक्त के बाद जब बाते खत्म हो जाती हैं, और जबरदस्ती बातों को जारी रखा जाता है इसलिए कि दो लोग सिर्फ साथ रहें, मुझे ऐसा जारी रखना पसंद नहीं आता है। इसलिए मैं छोड़ आती हूं एक अच्छे मोड़ पर उस व्यक्ति को। कभी भी मुझे खुद की इस आदत...

मेरी खो देने की आदत...

 बहुत अरसे तक मैं मानती थी जिंदगी मे वो बहुत ज्यादा कीमती होता है जिसके सामने रो पाओ  मन हल्का कर पाओ ... कोई ईश्वर सा मिल जाए जो सिर्फ सुन ले कुछ न कहे... पर शायद अब एहसास हुआ जिंदगी में किसी के साथ  हंसते हुए रहना कितना जरूरी है जिन्दगी फिर से जीने लगते हैं हम ऐसे शख्स के सामने... बचाकर रखना चाहिए किसी ऐसे को.. अफसोस कि अब  मुझे किस्मत ने खो देने की आदत लगा दी है।

मां के लिए

मुझे बहुत ज्यादा तलाश रहती है आजकल तुम्हारी गरम हथेली की। उस एहसास की जब सुबह सुबह मैं तुमसे लिपट कर गुड मॉर्निंग कहती थी और तुम मेरे गाल पर हाथ फेर कर मेरे हाथ में गरम पानी पकड़ा देती थीं। तुम्हारी आंखे याद आती हैं मुझ पर गुस्सा करने वाली, मुझे छेड़ने वाली, मुझसे रूठने वाली..मुझसे जिद करने वाली। लिपटना याद आता है, गोद में सर रखकर सो जाना याद आता है। तुम्हारा टोकना, रूठना , मनाना , खिलखिला कर हंसना..सब याद आता है। यकीं मानना मैं रो नही रही हूं, वो अलग बात है बहुत दिनो बाद तुम्हे लिखकर पुरानी यादों में तुमसे मिलना चाहती हूं। याद है मुझे जुखाम हुआ था, इकरा चोरी से ice cream दे गई थी, तुम इतना डांट दी कि गुस्से में मैने वो फेंक दी। तुम फिर भी शांत नही हुई थी... अंत में तुमने और मैंने साथ मिलकर ice cream खाई थी। तुम भी सोच रही होंगी, आज क्यों मैं तुम्हे लिख रही, जबकि मैं बच रही थी तुम्हे लिखने से... मां मैं बच रही थी, सामना करने से... मैं जब आज घर से निकल रही थी, मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत महसूस हुई, मैंने आंख बंद की तुम्हे फील किया। सच में ये वही  वैसा ही था... शायद तुम अब भी मेरी स्मृत...

बदलाव दुख के साथ बीतता है

 कभी कभी बड़ी अपरिपक्वता से मैं खुद के साथ व्यवहार करती हूं। जैसे जानती ही नहीं खुद को। कुछ दिनों तक मैं अपने किसी बड़े असल दुख को छिपाने के लिए, एक छोटे दुख को ढूंढने में लगी थी। ये ऐसा ही था जैसे छोटे बच्चे को कार का सपना दिखाकर खिलौना पकड़ा देना... एक कृत्रिम दुख, फीका सा, जिसमे कभी कोई एहसास नहीं होगा... और एक दिन ये चुपचाप चले जाएगा, उस बड़े दुख को साथ लेकर।  मै बहुत सीमित करना शुरू कर चुकी थी खुद को, जैसे एक बंद कमरे में किसी बड़े पाठक को शांति चाहिए होती है, मुझे भी उसकी ही तलाश रहती थी दिन भर। लेकिन मेरे आसपास इतना बिखराव पड़ा था, इतनी तंग और जिल्लत भरी जिंदगियां थी जिसमे मुझे ये अपने लिए अलग शांत माहौल खोजना अट्टहास लगा। मैं हार कर वापस आ गई वहीं... फिर से अब फिर से शुरू करना होगा सब,बचाना होगा उस बड़े दुख को.. बहुत जरूरी है उसे बचाना। विदा करना होगा इस कृत्रिमता को। अब मुझे स्वीकारना होगा जिससे मै भाग रही थी, जिससे बच रही थी इन तीन महीनों में...जो बेकार सहारे ढूंढ रही थी। उन्हें वहीं उनकी जगह रखकर फिर चलना होगा...